Monday, 3 November 2014

आवाज़

रात के सन्नाटे में भी एक शोर है
मद्धम सा जो सुनाई पड़ता है कानो में
हर रोज़ शाम के ढलते ही

शोर है एक आवाज़ का
जो कानो ने सुनी नहीं कितने दिनों से
फिर भी बस कानो में ही है कही

अलसायी सी एक शाम में
जब थक के चूर होती हूँ मैं,
तब सोचती हूँ पीछे से कोई कह दे
उसी आवाज़ में,
"खाना लगा दिया है, आकर खा ले"
शहर सुन्दर बहुत है, और लोग भी कमाल के हैं

पर दूर रहकर तुम बहुत  याद आती हो,
                    माँ 

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