Friday 4 November 2011

मुट्ठी भर फरमाईशें...



चलो कुछ  देर  और  बैठे  रात  को  ओढ़कर 
चलो  कुछ  देर  और  लायें  बीते  लम्हों  को  मोड़कर 
फिर  से  गातें  हैं  चलो , अपने  से  गीत  अपनी  ही  धुन  में 

भूल  जातें  हैं  चलो  के  कोई  ठहरा  था  और  कोई  चल  दिया  था  छोड़कर  


चलो  दोस्ती  में  फिर  वही  स्वाद लातें  हैं
इलायची  से  महकती  यादें , और   शहद  से  मीठे  वादों  का  तड़का  लागतें  हैं 
कुछ  दोस्त  हमेशा  ही  दोस्त  रहते  हैं ”,
आज  बिना  कुछ सोचे , चलो  ये  मान  जातें  हैं 

चलो  पुरानी  तस्वीरों में  फिरसे  रंग  भरते  हैं
वो  जो  धुल  सी  जमी  थी , उसे  साफ़  करते  हैं 
मैं  इधर , तुम  उधर , और  तुम  बीच  में 
फिर  चलो  एक  लम्हे  को  कैद  करतें  हैं 

सुबह की हकीक़त कुछ और ही होगी 
चलो ना आज कुछ देर, एक दुसरे से, कुछ और फरमाईशें करतें हैं !






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