Sunday, 25 November 2012

फिर


 

सपनों का जहाज़ बनाकर देखा 
नीले उस बादल में उड़कर देखा,
कागज की कश्ती वो पीली वाली, 
उसे फिर से पानी में बहा कर देखा 
कुछ निशान जो दीवार पर छोड़े थे यूँही 
उनको भी साथ मिलकर देखा 
आईने पर भी नज़र पढ़ी तब,
कुछ देर खुद को नज़र टीकाकार देखा 
वो अब भी चमक रही थी, ठीक वैसे ही,
वो बिंदी, उसे कल ही मैंने फिर माथे पर सजाकर देखा   

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